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अग्ने॑ जा॒तान् प्र णु॑दा नः स॒पत्ना॒न् प्रत्यजा॑तान् नुद जातवेदः। अधि॑ नो ब्रूहि सु॒मना॒ऽअहे॑डँ॒स्तव॑ स्याम॒ शर्म॑ꣳस्त्रि॒वरू॑थऽउ॒द्भौ ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। जा॒तान्। प्र। नु॒द॒। नः॒। स॒पत्ना॒निति स॒ऽपत्ना॑न्। प्रतिं॑। अजा॑तान्। नु॒द॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। अधि॑। नः॒। ब्रू॒हि॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अहे॑डन्। तव॑। स्या॒म। शर्म॑न्। त्रि॒वरू॑थ इति॑ त्रि॒ऽवरू॑थे। उ॒द्भावित्यु॒त्ऽभौ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पन्द्रहवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में राजा और राजपुरुषों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) राजन् वा सेनापते ! आप (नः) हमारे (जातान्) प्रसिद्ध (सपत्नान्) शत्रुओं को (प्र, नुद) दूर कीजिये। हे (जातवेदः) प्रसिद्ध बलवान् ! आप (अजातान्) अप्रसिद्ध शत्रुओं को (नुद) प्रेरणा कीजिये और हमारा (अहेडन्) अनादर न करते हुए (सुमनाः) प्रसन्नचित आप (नः) (प्रति) हमारे प्रति (अधिब्रूहि) अधिक उपदेश कीजिये, जिससे हम लोग (तव) आप के (उद्भौ) उत्तम पदार्थों से युक्त (त्रिवरूथे) आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों सुखों के हेतु (शर्मन्) घर में (स्याम) सुखी होवें ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - राजा आदि न्यायाधीश सभासदों को चाहिये कि गुप्त दूतों से प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध शत्रुओं को निश्चय करके वश में करें और किसी धर्मात्मा का तिरस्कार और अधर्मी का सत्कार भी कभी न करें, जिस से सब सज्जन लोग विश्वासपूर्वक राज्य में वसें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अस्य प्रथममन्त्रे राजराजपुरुषैः किं किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अग्ने) राजन् वा सेनापते (जातान्) उत्पन्नान् प्रसिद्धान् (प्र) (नुद) दूरे प्रक्षिप। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (नः) अस्माकम् (सपत्नीन्) सपत्नीव वर्तमानानरीन् (प्रति) (अजातान्) अप्रकटान् (नुद) प्रेर्ष्व (जातवेदः) जातबल (अधि) (नः) अस्मान् (ब्रूहि) उपदिश (सुमनाः) प्रसन्नस्वान्तः (अहेडन्) अनादरमकुर्वन् (तव) (स्याम) (शर्मन्) गृहे (त्रिवरूथे) त्रीणि वरूथान्याध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकानि सुखानि यस्मिन् (उद्भौ) उदुत्कृष्टानि वस्तूनि भवन्ति यस्मिंस्तस्मिन् ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वं नो जातान् सपत्नान् प्रणुदा हे जातवेदस्त्वमजातान् शत्रून् नुद अस्मानहेडन् सुमनास्त्वं नोऽस्मान् प्रत्यधिब्रूहि यतो वयं तवोद्भौ त्रिवरूथे शर्मन् सुखिनः स्याम ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - राजादिसभ्यजनैर्गुप्तैश्चारैः प्रसिद्धाऽप्रसिद्धान् शत्रून् निश्चित्य वशं नेयाः। न कस्यापि धार्मिकस्यानादरोऽधार्मिकस्यादरश्च कर्त्तव्यः, यतः सर्वे सज्जना विश्वस्ताः सन्तो राष्ट्रे वसेयुः ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व न्यायाधीश यांनी ज्ञात व अज्ञात अशा शत्रूंना गुप्त दूतांमार्फत माहिती घेऊन ताब्यात घ्यावे. धर्मात्मा लोकांचा तिरस्कार व अधार्मिक माणसांचा सत्कार कधीही करू नये. त्यामुळे सर्व सज्जन राज्यात विश्वासपूर्वक निवास करतील.